शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

धुंध

धुंध
ये कैसी धुंध हैं जो ठहरी हुई हैं
न आसमां में बादल हैं
न हवा के झोंके हैं
मोसम ठहरा हुआ हैं
न जाने इस धुंध में किसका चेहरा छुपा हुआ हैं
चारो तरफ बस एक शांति हैं

डाल पर बैठी मैंना भी आज कुछ अनजानी हैं
पूरब से निकलता सूरज भी आज कम नूरानी हैं
नदियों के पानी में भी आज झोंके नहीं हैं
बागों की कलियों में भी रंग कुछ फीके पड़े हैं
रात हैं पर उसके अँधेरा में भी कालिक की कमी सी हैं
बस एक धुंध हैं जो ठहरी हुई हैं
बरसने का मन हैं पर बादलो में गरजने की हिम्मत नहीं हैं
मैना भी राह देख रही हैं पर धुंध में राह की गलियां छिपी हैं
इस धुंध में छिपे चेहरे ने अब तक दस्तक नही दी हैं
ये कविता मेरी स्वरचित हैं

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