सोमवार, 26 जुलाई 2010
विवि में रंगारंग कार्यक्रम था , कई बच्चो ने उसमे डांस भी किया, २ साल से लेकर २०, २४ साल के बच्चो ने अपने अपने अभिनय की प्रस्तुति दी , हर बच्चे के माता पिता भी शामिल थे पर पुरे कार्यकर्म में एक अनोखी चीज़ दिखी , जिसने बहुत भावुक कर दिया, उस कार्यक्रम में एक ६-७ का बच्चा था, जो अपने जैसे बच्चो को पानी पिला रहा था, और बार बार मंच को निहार रहा था की कार्यक्रम में उस बच्चे से पूछा की क्या आपका मन नही करता हैं की आप भी मंच पर हो, तो उसने धीरे से कहा की करता हैं पर रोटी खाने के लिए मुझे ऐसा करना पडता हैं , इससे आगे लिखने क्या जरूरत आप सभी समझ दार हैं , ऐ वतन तेरे इस देश में आज भी आंख भर आती हैं , और तब भी आँख भर जाती थी, जब अंग्रेजो के कोड़े हमारे वीरो पर पड़ते थे , जय हिंद ,
शनिवार, 24 जुलाई 2010
कितने अजीब रिश्ते
हिंदी फिल्म पेज थ्री में वास्तव में एक सच्चाई दिखती हैं
ख़ास तौर पर उस गीत में जिसके बोल हैं कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पर, दो पल मिलते हैं साथ साथ चलते हैं जब मोड़ ये आये, तो बच कर निकलते हैं , कौन किसको पूछे कौन किसको जाने सबके दिलो में अपने तराने हैं ,,,,,,,,,,,ये लाइन अब सही लगने लगी हैं
आज भी इंसान दूसरो को पहचाने में भूल कर जाता हैं हम भले ही कितने समझदार क्यों न हो, पर अक्सर चोट खा जाते हैं, और वो चोट इतनी गहरी होती हैं की उस जगह के जख्म कभी नहीं भरते हैं ,,,,,,,,,,,,,,,,,
ख़ास तौर पर उस गीत में जिसके बोल हैं कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पर, दो पल मिलते हैं साथ साथ चलते हैं जब मोड़ ये आये, तो बच कर निकलते हैं , कौन किसको पूछे कौन किसको जाने सबके दिलो में अपने तराने हैं ,,,,,,,,,,,ये लाइन अब सही लगने लगी हैं
आज भी इंसान दूसरो को पहचाने में भूल कर जाता हैं हम भले ही कितने समझदार क्यों न हो, पर अक्सर चोट खा जाते हैं, और वो चोट इतनी गहरी होती हैं की उस जगह के जख्म कभी नहीं भरते हैं ,,,,,,,,,,,,,,,,,
रविवार, 11 जुलाई 2010
वक्त
शुक्रवार, 2 जुलाई 2010
धुंध
धुंध
ये कैसी धुंध हैं जो ठहरी हुई हैं
न आसमां में बादल हैं
न हवा के झोंके हैं
मोसम ठहरा हुआ हैं
न जाने इस धुंध में किसका चेहरा छुपा हुआ हैं
चारो तरफ बस एक शांति हैं
डाल पर बैठी मैंना भी आज कुछ अनजानी हैं
पूरब से निकलता सूरज भी आज कम नूरानी हैं
नदियों के पानी में भी आज झोंके नहीं हैं
बागों की कलियों में भी रंग कुछ फीके पड़े हैं
रात हैं पर उसके अँधेरा में भी कालिक की कमी सी हैं
बस एक धुंध हैं जो ठहरी हुई हैं
बरसने का मन हैं पर बादलो में गरजने की हिम्मत नहीं हैं
मैना भी राह देख रही हैं पर धुंध में राह की गलियां छिपी हैं
इस धुंध में छिपे चेहरे ने अब तक दस्तक नही दी हैं
ये कविता मेरी स्वरचित हैं
ये कैसी धुंध हैं जो ठहरी हुई हैं
न आसमां में बादल हैं
न हवा के झोंके हैं
मोसम ठहरा हुआ हैं
न जाने इस धुंध में किसका चेहरा छुपा हुआ हैं
चारो तरफ बस एक शांति हैं
डाल पर बैठी मैंना भी आज कुछ अनजानी हैं
पूरब से निकलता सूरज भी आज कम नूरानी हैं
नदियों के पानी में भी आज झोंके नहीं हैं
बागों की कलियों में भी रंग कुछ फीके पड़े हैं
रात हैं पर उसके अँधेरा में भी कालिक की कमी सी हैं
बस एक धुंध हैं जो ठहरी हुई हैं
बरसने का मन हैं पर बादलो में गरजने की हिम्मत नहीं हैं
मैना भी राह देख रही हैं पर धुंध में राह की गलियां छिपी हैं
इस धुंध में छिपे चेहरे ने अब तक दस्तक नही दी हैं
ये कविता मेरी स्वरचित हैं
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